Thursday, 31 May 2018

“आपल्या कडे कशाचीच कमतरता नाही असे जेव्हा तुम्हाला वाटत असते, सारे जग तुमचेच असते...”
                                                                                -लिओ इयु ( इस.सन पुर्व 6 वे शतक)

   “माझे काम माझ्या भोवताली असलेल्या जिवंत वा मुर्त  व्यक्तींमुळेच पार पडत आहे याची जाणीव मी स्वत:ला दिवसातून शंभर वेळा करून देत असतो. त्यामुळे मला आजवर जे काही मिळाले आहे व जे मिळत आहे यासाठी त्यांच्या प्रती थोडीतरी कुरतज्ञता व्यक्त करावी याची मला सतत जाणिव असते...”

                                                                              -अल्बर्ट आईन्स्टाईन (1879-1955) भौतिकशास्त्रज्ञ

“आपण जे काही इतरांच्या आयुष्यात देतो तेच आपल्याकडे पुन्हा येते...”
       
                                                                              -एडविन मारकहॅम (कवी)
                        

Wednesday, 30 May 2018

“एक बेबस औरत”.....(दिल में बेचैनी और आँखो में पानी)

एक सीधा सा सवाल है मेरा कुछ लोगों से ....

क्या वाक़ई हम अपनी बेटी, बहनों से सच्चे दिल से प्यार करते है ??
अगर करते है तो.......क्या उसे अपने ज़िंदगी के फ़ैसले लेने का हक़ भी हम देते है ??

जी नहीं, ज़्यादा तर लोंग ऐसा हरगिज़ नहीं करते, उनको लगता है के फ़ैसले लेने की अक़्ल उसमें है ही नहीं 
क्या अच्छा ? क्या बुरा ? उसको कुछ नहीं समझता ( बाक़ी सब इनको ही समझता है )

मैं दावे के साथ कहता हु की लड़कियाँ लड़कों की तुलना में बेहतर फ़ैसले लेती है  सोच समझकर आगे बढ़ती है  और उसके लिए हुए निर्णय अच्छें ही होते है, लेकिन इस बात को हम कभी नहीं मानेंगे.

हम आज जो मर्ज़ी बोलें की हिंदुस्तान बहोत तरक़्क़ी कर रहा है, आगे बढ़ रहा है इसमें कोई शक नहीं की 
हर मामलों में हमने काफ़ी ऊँचाइयोंको छूवाँ है और कामयाबी के नयें आयाम खड़े किए है लेकिन , लेकिन.........

आज भी गाँव शहरों में हमारे देश की औरतें बेहिसाब ज़ुल्म सहती है और वो भी अपने ही लोगों से ,

औरतों, बहनों के मामले में हम इसे अपने नाक का सवाल बना लेते है.....
कोनसी नाक ? किसकी नाक ? कैसी नाक ?? पता नहीं 

कहीं पर सुना है के जो समाज औरतों, बेटियों की इज़्ज़त करना नहीं जानता उस समाज का भविष्य कभी नहीं सुधर सकता

औरत की इज़्ज़त करने  उसे आज़ादी देने में ऐसी कोनसी परेशानी होती है हमें पता नहीं, क्यूँ उसे हम इतना कमज़ोर मानते है ?


क्यूँ आज भी अपने हक़ के फ़ैसले नहीं ले सकती औरत ?
क्यूँ उसे आज़ादी से जीने का हक़ नहीं देता ये समाज ?
क्यूँ उसे आज भी अपनी ज़िंदगी और ख़ुशियों को लेकर लड़ना झगड़ना पड़ता है 
आख़िर क्यूँ ?????

इस क्यूँ का जवाब उस औरत को ही ढूँढना पड़ेगा , अपने हक़ की लड़ायीं उसे ख़ुद लड़नी होगी 

अन्याय और शोषण के ख़िलाफ़ उसे ख़ुद खड़ा होना पड़ेगा नहीं तो ये समाज उसे बदचलन कह कर कहीं दफ़ना देगा

आज भी हमारे समाज में झूठी शान और इज़्ज़त के रखवाले ज़िंदा है जो ना तो औरत का हृदय समजते है ना उसके दर्द और तकलीफ़ों को समजते है. वो बस अपनी इज़्ज़त के लिए उसकी बली चढ़ा देते है और बेचारी कुछ ना कहते हुए सब सह लेती है क्यूँ ? क्यूँ की उसे इस बात का इल्म रहता है की वो कुछ ग़लत क़दम उठा भी ले तो अपने माँ-बाप , ख़ानदान की इज़्ज़त ना चली जाए 

उसे सिर्फ़ डराकर धमकाकर रखा जाता है और बेचारी डर जाती है 

उसने कितने ना जाने अनगिनत कष्ट उठाए होंगे इन्हें पता भी नहीं होगा पर अपने मुँह से एक लफ़्ज़ भी अपने घरवालों से कभी नहीं कहा क्यूँ के वो जानती थी , बताने से उन्हें तकलीफ़ होगी ? रोज़ की तकलीफ़ कब तक कह सकती है और बताने से कुछ होगा ही नहीं तो फिर क्या  बताना....

उस इंसान को बाप बनने का हक़ है जो अपने बच्चों की तकलीफ़ उनकी ख़ुशी को समझता हो 
उस इंसान को भाई बनने का हक़ है जो कलाई पर बांधी राखी के मतलब को समझता हो अपने बहन की रक्षा करता हो उस इंसान को पति बनने  का हक़ है जो औरत के दिल को समझें, उसे प्यार करें , उसके सुख दुःख में उसके साथ खड़ा हो 
और उस इंसान को  मर्द बनने का पूरा हक़ है जो औरत को अच्छी नज़र से देखें उसकी इज़्ज़त करें,उसे पूरा सम्मान दे 

किसी ने ठीक कहाँ है के हक़ माँगने से अगर नहीं मिलता तो उसे छिनने में कोई बुराई नहीं है....


-राम 









Tuesday, 29 May 2018

आपके विचार व भावनाएँ कारण हैं और जो प्रकट होता है, वह परिणाम है,
जैसा भीतर है , वैसा ही बाहर है ,
जैसा आपके अंदर है, वैसा ही आपके बाहर है,

याद रखें, कारण आपके भीतर है और बाहरी संसार परिणाम है....


-रॉंडा बर्न

Monday, 28 May 2018

‘एलगार’

साध्याच्या  मानसांचा ‘एलगार’येत आहे
हा थोर ‘गांडुळांचा’जमाव नाही,

जी काल पेटली होती ती वस्ती ‘मुजोर’ होती
गावात ‘सज्जनांच्या’ आता तनाव नाही,

ओठी तुझ्या न आले अदयाप ‘नाव’ माझे
अन् ओठ शोधण्याचा माझा ‘स्वभाव’नाही


-सुरेश भट

राहिले रे अजुन श्वास किती ?
जिवना ही तुझी मीजास किती ?

              सोबतीला जरी छाया तुझी
              मी करू पांगळा प्रवास किती ?

हे कसले प्रेम, ह्या कसल्या आशा ?
मी जपावे अजुन भास किती ?


- सुरेश भट

Sunday, 27 May 2018

इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता की आप कहाँ है, न ही इस बात से की परिस्थितियाँ कितनी मुश्किल नज़र आ रही है,
आप हमेशा वैभव की ओर बढ़ रहे हैं।हमेशा......

सृष्टि ज़िंदगी में हर पल आपका मर्गदर्शन कर रही है और आपसे संवाद कर रही है, यह आपके विचारों पर प्रतिक्रिया कर रही है और आपकी भावनाओं के ज़रिए आपको फ़ीड्बैक दे रही है; अच्छी भावनाओं का मतलब अच्छा है, बुरी भावनाओं का मतलब बुरा है, इस तरह सृष्टि आपको सतर्क करती है....

हर पल,हर दिन, हर वक़्त, हर कहीं पर सृष्टि आपके साथ है , आपसे संवाद करती है बस इसके साथ तालमेल बैठाएँ आप कभी अकेले नहीं है.... पल भर के लिए भी नहीं.....

लेकिन आपको इसकी बात सुननी होती है !!!



-रॉंडा बर्न
“अपनी धुन में रहता हूँ”


अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
पिछली रुत के साथी
अब के बरस मैं तन्हा हूँ
तेरी गली में सारा दिन
दुख के कंकर चुनता हूँ 


मुझ से आँख मिलाए कौन 
मैं तेरा आईना हूँ

मेरा दिया जलाए कौन
मैं तिरा ख़ाली कमरा हूँ
तेरे सिवा मुझे पहने कौन
मैं तिरे तन का कपड़ा हूँ
तू जीवन की भरी गली
मैं जंगल का रस्ता हूँ
आती रुत मुझे रोएगी
जाती रुत का झोंका हूँ
अपनी लहर है अपना रोग
दरिया हूँ और प्यासा हूँ

-नसिर काज़मी

Saturday, 26 May 2018

दिल थाम कर बैठों”


‘दिल’थाम कर बैठों
साँसे तेज़ी से चलने दो,
मैं ‘तूफ़ान’बनकर आ रहा हुँ
कोई उनको ख़बर कर दो.....

          हमने देखा हैं उनका 
          बरसों बेचैनी से ‘इंतज़ार’ करना,
          ख़त्म हुईं सब ‘रंजिशें’
          कोई उनको ख़बर कर दो.....    

‘ग़ुलामी’ की ज़ंजीरे 
कब ? किसे ? कहाँ ?क़ैद कर सकी है ?
मैं ‘आज़ादी’ लेकर आ रहाँ हुँ,
कोई उनको ख़बर कर दो.....

           ‘नफ़रतों’ की ताक़तें ,
            क्या ? प्यार को मिटा सकीं है 
           मैं ‘मोहब्बत’ लेकर आ रहा हुँ,
           तुम मोहब्बत ज़िंदा रक्खों....

जिन्हें बड़ा ग़ुरूर था 
अपने ‘मर्दानगी’ पर 
मैं ‘सबक़’सिखाने आ रहाँ हूँ,
कोई उनको ख़बर कर दो.....

          दिल थाम कर बैठों
         साँसे तेज़ी से चलने दो 
        मैं तूफ़ान बनकर आ रहा हूँ,
        कोई उनको ख़बर कर दो.....


-राम 
    







Thursday, 24 May 2018

नमस्कार मित्रांनो, 

“मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल, मगर लोग आते गए और कारवाँ बनता गया” 

प्रसीद्ध उर्दु शायर मजरूह सुल्तानपुरी यांच्या या ओळींसारखच काहीस माझया् ही बाबतीत घडलं असं मला वाटतं,
त्याच कारन की, मला खरोखर मनापासून प्रसीद्धीचा तसा काही फार हव्यास व इच्छा नव्हतीच, परंतु केवळ तुमच्या सारख्या प्रेमळ मित्रांच्या आग्रहाखातर आणी तुम्ही मनापासून दिलेली दाद, प्रेमांमुळेच आज हा ‘अव्यक्त’ भावनांचा व विचारांचा प्रवास अविरत पणे चालला आहे....

मला मनापासून खरोखर खुप आनंद वाटतो कारण की, वाचकांची संख्या दिवसेंदिवस वाढतच आहे आणी हीच एक गोष्ट  अशी आहे की जी मला आयुषयाबदद्ल नवा उत्साह व प्रेरणा देते, जाणून बुजुन जगायला शिकवते.....

खुप-खुप धन्यवाद तुमचे जिवंतपणी माझ्या जाणीवा जिवंत केल्याबदद्ल......!

खुप-खुप धन्यवाद त्या क्षणांचे ज्यांनी कुठल्याही स्वार्थाविना इतरांसाठी जगायला शिकवल....!!

धन्यवाद ...!!!


-राम




Sunday, 20 May 2018

'जिंकुन घेईन....'

जिंकुन घेईन, जिंकुन घेईन
मी 'जग' सारे, जिंकुन घेईन
छेदुन जाईन, भेदून जाईन
'कडक' खडक, ते भेदून जाईन....

            उलथवून टाकीन, संपवून टाकीन
            अराजक, विचारांना संपवून टाकीन
            कुरतडलीत मुळं जयांची ते,
            भ्रष्ट व्रक्ष मी उलथवून टाकीन....

गोर गरीबांची हाक मी होइन
खुळ्या-अपंगांचे हात मी होइन
स्व:ता पुरते तर सगळेच जगतील,
मुक्या- बधीरांचे शब्द मी होइन


           थोर विचारांची थोरवी मी गाईल
            आर्त हाकेला 'साद' मी देईल

            बुरसटलेलया परंपरांची चिंता कशाला,
           
धगधगता 'निखारा' मी होइन
भडकानारा 'वनवा' मी होइन
भस्मुन टाकीन विश्व त्यांचे,
पापच माजविती नित्य जगी जे,

            'जड' देहाची का ? करू चिंता
            'क्षणिक' सुखाला निरोप आता
            आत्मज्ञानाने अन् ध्यानाने,
            'ब्रम्हतत्व' मी जानुन घेईन.....

शत्रूंचे यातकिंचीतही 'भय'मजला,
ना या घोर 'तिमीराची' हो पर्वा,
'प्रवासी' मी दिग-दिगंताचा,
अमृत घट सारे पिवुन टाकीन....


-राम

            

Friday, 18 May 2018

अंत.......एका संघर्षमयी जिवनाचा 

किशोर शांताबाई काळे 
(MBBS,MD)
Author,Socialist

( किशोर शांताबाई काळे यांच्या स्मरणार्थ.....पेशान डॉक्टर, लेखक,कवी व समाजसेवक असलेला किशोर समाजाचं खुपच आगळं वेगळ परंतु वास्तव रूप होता, अतिशय काठीनं परिस्थतीत जुन्या रूढीवादी समाजात जन्माला येउनही त्याने आपला जिवनलढा यशस्वी करून दाखवला.....आपले वडील कोन हे माहीती नसलेला व्यक्तीच समाजात काय होतं हे आपण सगळेच जाणतो म्हणून किशोर ने वडीलां ऐवजी आईच नाव लाऊन एका नवीन परंपरेची देखील सुरूवात केली,अर्थातच खुप संकटांचा सामना किशोर काळे यांनी केला असणारच.....

अवघया वयाच्या ३५ व्या वर्षी रोड अपघातात त्यांचा दुर्दैवी मुत्यु झाला.

त्यांची काही प्रसीद्ध प्रकाशित पुस्तके - कोल्हाटयाचं पोर, 'हिजडा-एक मर्द', आणि मी डॉक्टर झालो, आयुर्वेदीक औषधी.....

त्यांच्या झंझावाती जीवन प्रवासाला अखेरची मानवंदना व श्रद्धांजली....!!!!



“अंत”............एका संघर्षमयी जिवणाचा

संघर्षमयी मनाचा 
'ध्यास'शांत झाला
एका सुसाट 'वादळाचा'
कसा अचानक अंत झाला ?

'घोर' लावुनीया जिवाला
झोप बेचिराख केली,
घनघोर 'काळोखावर'
एकट्यानेच मात केली....


नियतीने घडवलेला
तो धाडसी 'मर्द' होता,
संवेदनशील मनाचा
'अनोखा' दरद होता.....

जगणे त्याच्या 'विचारांचे'
खरोखर जगणे होते,
कोंडलेलय् मनाचे 
श्वासाविना तगणे होते.....

'आयुषयाला' तुझ्या दिवाणया
लाख-लाख सलाम माझा
सोनेरी पावलांना तुझ्या 
सोनेरी 'सलाम' माझा.......



-राम

“मनाला पटनारया सगळ्याच 'घटना'काही तितक्याच वास्तव, स्पष्ट,व सत्य नसतात,
जेवढ्या त्या बघतां क्षणी भासतात; जर त्या घटनांतली सत्यता व स्पष्टता पडताळून बघण्याची तीव्र 
इच्छा आपनास झाली, तर त्या घटनेचा तितक्याच सविस्तर रितया सखोल स्वरूपाचा अभ्यास करावा लागतो...,
नंतर, सकारात्मक अभ्यासाअंती साकार होनारा परिपक्व, निर्भिड विचार किंवा निर्णय म्हणजेच त्या घडलेलया
घटनेचं बौद्धिक, मानसिक व वैचारिक पातळींवर केलं गेलेल विश्लेषण होय......”


-राम

Thursday, 17 May 2018

सावरकर म्हणायचे आपल्याला सत्ताबदल करायचा आहे, इंग्रजांच्या गुलामीतुन हिंदुस्तान स्वतंत्र करून एक अशी व्यावस्था कायम करावी लागेल जेणेकरुन उद्या भविष्यात पुन्हा स्व:ता च्या स्वार्था साठी जनतेला वेठीस धरनारी विचारधारा जन्माला येनार नाही.....

सावरकर म्हणायचे इंग्रजांना, हाकलून आपली जबाबदारी संपत नाही उद्या त्यांच्या पेक्षाही भयंकर बेईमान औलादी जन्माला येतील व त्यांच्याशी लढणं फार काठीनं होऊन बसेल....

खरच काय विलक्षण दुरद्रष्टी होती सावरकरांची जी चिंता त्यांनी त्या वेळी बोलुन दाखवली होती ती आज आपण जगत आहोत..


-राम

Monday, 14 May 2018

“खोने तक अपनी हस्ती कोई साहिल न मिला
जो मिला वो भी चंद लमहों का मेहमान निकला

हम कब से उम्मीद लगाए खड़े है इंतज़ार में उसके आने के,
कोई आया तो नहीं,मगर फ़ासला और बना.....”



-राम 
शपथ तुला मातीची....’

‘व्यर्थ’का हो,बलिदान त्यांचे,
व्यर्थ का हो, प्राण.....
देशहितासाठी पुसतो तुम्हास,
कुठयं ? आपुला देश अभिमान....

उपाशी राहुन स्वःता ज्यांनी,
चारली ‘भाकरी’भुकेलयांना,
अन्याया विरूद्ध लढण्यास,
पिळ पाडली ‘आतडयांना’ 

देशा खातर ‘अंदमान’गाठले
शिक्षा भोगुनी काळया् पाण्याची 
विझता-विझवता विझली, नाही
‘ज्वलंत’आग देश भक्तीची......

‘स्वाभिमानाने’पेटुनीया उठला 
दिसतां सावट स्व:धर्मा वरती 
हल्ला बोल, म्हणत चढला,
मंगल पांडे, ‘फासा’वरती......

थेंब-थेंब रक्ताने ज्यांच्या,
‘पावन’ झाली धरती,
‘रक्षण’ करण्यां मात्रूभुमिचे
बनला भगत सिंग रंगबसंती....

‘देशप्रेम’जागवं तुझ्यातलं,
चल ऊठ, घे, ‘मशाल’हाती;
संपवून टाक देशद्रोही विचारांना,
‘राम’शपथ तुला तुझ्या मातीची 



-राम

Sunday, 13 May 2018

“तुझे देखता हूँ”.....

तुझे देखता हूँ तो कोई ‘अपनासा’लगता है 
शायद मैं गहरीं नींद में हुँ, ‘सपना’सा लगता है 

आँखो से ‘चमकती’रोशनी, कुछ महसूस कराती है 
निगाहों की ‘ख़ामोशी’में कोई राज गहरा लगता है 

ओठों पर जो हलकिसी ‘मुस्कान’उभर रही है 
ज़ुबान पर शायद आनेवाला मेरा ‘नाम’ लगता है 

‘मन’ में तुझे पाने की बड़ी कोशिश हो रही है 
कुछ तो ज़रूर पिछले जनम का, ‘रिश्ता’सा लगता है 

कब चलें आओगे, इस समशान ‘वीरान’गलियों में 
तेरे बग़ैर ज़िंदगी में कोई ‘ख़्वाब’अधूरा सा लगता है 


-राम 

“दिल धड़कने का सबब याद आया 
तू अब भी मुझे याद करती है याद आया”

-राम 

Tuesday, 8 May 2018

“हर तरफ़, हर जगह
हर कहीं पर है , हाँ उसी का नूर ;
रोशनी का कोई दरिया तो है ,
हाँ कहीं पर ज़रूर.....”

फ़िल्म-साया
“वो है के ख़ुशियों में भी कंजूशिया करते है 
और इक हम है जो अपने बरबादियों का भी जश्न मनाते है....”


-राम 
“वो कहीं जाकर, दूर विरानियों में खो गया 
मैं समझतीं रहीं के वो मेरा हो गया....”


-राम 

Sunday, 6 May 2018

जरा थांबला असतास’...


अफाट या ‘वाटा’
अफाट हे रस्ते 
‘प्रवास’ तुझा कुठला?
‘ध्येय’ तुझे कोणते?

           जायचे तर होतेच
           जरा ‘थांबला’ असतास
           फुलायचे ‘वय’होते
           जरा फुलला असतास....

जिवंतपणीच जगण्याच्या 
का? ‘आशा’ जाळल्यास 
इतका कठोर झालास ?
सर्व ‘दिशा’ संपवल्यास ....

          शोधायचे कोठे तुला ?
          बघायचे तरी कोठे तुला ?
          केव्हा संपेल ‘प्रवास’ तुझा 
          कधी येशील तु भेटीला.....


(भावाच्या  आठवणीत रचलेली कविता )


-राम
     
हद से गुज़र जाऊँगा वो आशिक़ हु मैं
ज़रा तबियत से आँखों में झाँककर तो देख....


-राम 


मेरी तरहा आज वो भी 
कुछ उदास-उदास लग रहे है 
झुकीं-झुकीं नज़रों से,
अपना हाल ये दिल बायाँ कर रहे हैं....

-राम 



‘भरोसा’ ज़माने पर करना
हमारी आदत हैं
हरबार ‘धोखा’देना ,
ज़माने की आदत है .....


-राम 


‘उम्मीद’ कभी न करना 
किसी से कुछ पाने की 
मजबूर बना देती है 
‘झूठी’उम्मीद ज़माने की .....



-राम 



श्वास जरी घेत असले”

‘श्वास’ जरी घेत असले प्राण-प्राण तुझा आहे
तुजविन जरी जगत असले; जगणे सुद्धा ‘मरण’आहे

‘वाट’ जरी चालत असले, मार्ग मात्र तुझा आहे
तुजविन जगण्यातला ‘अट्टहास’ देखील तुझा आहे

हाक जरी देत असले, नाव मात्र तुझे आहे
तुच दिसतो जिथे-तिथे, मनी तुझा ‘भाव’आहे

उमलली जरी पाकळी, ‘स्पर्श’मात्र तुझा आहे
तुच उगवले रोपटे नवे, ‘आधार’ही तुझा आहे 

सुकली जरी ‘फुले’ सगळी, गंध मात्र शाबुत आहे
ऊगा कशाला घाबरतोस, जन्म-जन्म तुझा आहे


-राम 

Saturday, 5 May 2018

क्षणभराची पिरती”


क्षणभराचा’ खेळ सगळा, क्षणभराची नाती
तरी आसुसते ‘जीव’सगळा, क्षणभराची पिरती 

कोण आपुला, कोण परका, नची कळली महती ,
‘साज’ बदलुनीया जो तो छळतो, क्षणभराची पिरती

फुलांसारखे जपले तुजला काय ? आमुची गलती 
काटे सोसले, ‘विरह’ सोसतो, क्षणभराची पिरती,

सांज सकाळी भलत्या वेळी  ‘प्राणप्रियाची’ आरती
‘भास’ म्हणावं की, वेड म्हणावं क्षणभराची पिरती 


-राम

तनहां कर गए “

हमसे क्या ? हो गया जो ‘ख़ता’कर गए 
क्यूँ तनहाइयों में, ‘तनहा’कर गए.....

‘क़रीब’ रक्ख़ा था तुमको, अपने दिल ही की तरहाँ,
क्यूँ मेरे मन को ‘परेशां’ कर गए.....

‘रूह’ याद करती है तुझको,देर रात तक 
क्यूँ ख़यालों में मेरे इतना ‘असर’भर गए.....

‘दोस्ती’ तुझसे करना शायद भूल थी,
तुझे ‘पहचान’ने में बड़ी भूल कर गए.....

हमसे क्या हो गया जो ख़ता कर गए 
क्यूँ तनहाइयों में, तनहा कर गए.....



-राम 

बदनाम

कसं सांगु तुला 
कसा ‘विरह’ जगला,
उभा देह माझा मी,
‘बदनाम’ म्हणून जगला

तु होतीस तेंव्हा,
किती ‘हिरवळ’होती,
पाचोळाही इथला,
कसा ? अचानक ‘सरला’

‘ओळख’ माझी बुडताच
जो,तो येऊन कोपला 
‘बेईमान’झाली दुनिया 
कोण माझा ऊरला......

‘वेळ’आली तसं 
माणसांन राहावं,
बदनामीत का होइना,
‘नावं’करून जावं 

मी माझ्या ‘बेहोशीतच’होतो,
आला ‘क्षण’ गेला.....
केवळ तुला जिवंत ठेवण्या,
हा शब्द ‘आशय’ जपला....



-राम


जरासा विखुरलो....”


तिची ‘याद’आली, म्हणून मी बावरलो
जरासा ‘विखुरलो’,जरासा सावरलो....

मनाच्या कोपरयाची ‘फांदी’
केंवाच तुटून पडली असती
सावलीला विसावलेली ‘पाखरं’
वारयावर भिरभिरली असती......

‘वाटनं’ चाललं म्हणून 
ती आपलीच म्हणायची नसते
‘वाटसरू’ समज़ुन केवळ
पावलांची संगत करायची असते....

‘चांगला’वाटला म्हणून
प्रत्येक जन आपला करायचा नसतो
पाण्याचा ‘प्रवाह’बघुन;
पाण्यात ‘सुर’मारायचा असतो.....


-राम
मौसम बदलते हीं....”

मौसम बदलते ही 
वो हमें भुलाने लगें,
धीरे-धीरे ‘नज़दीकियों’ को,
दुरियाँ बनाने लगें

        
          ‘बहतीं’हवाओं का 
          क्या भरोसा;
          कब कहाँ, अपना
          रूख बना लें....

खुली ‘फ़िज़ाओं’का 
क्या ? भरोसा
कब कहाँ अपना,
‘जलवा’ दिखा दें......


            ‘हरकतों’से अपनी,
            बेवक़ूफ़ बनाने लगे 
            धीरे-धीरे नज़दीकियों को 
            दुरियाँ बनाने लगें.......



-राम 
माझ्या निरस् जगण्याला”


तुझ्या येण्याने ‘अर्थ’आला
माझ्या निरस् जगण्याला
‘नव्या’जगाचे पंख लाभले
माझ्या ‘निरस’जगण्याला


तुझ्या येण्याने ‘अर्थ’आला
‘स्तबध’खुळ्यां शब्दाला
पराकोटीचे ‘भाग्य’ लाभलें
माझ्या निरस जगण्याला

तुझ्या येण्याने अर्थ आला
‘विस्मुत’ सोनेरी क्षनाला
सात जन्माचे ‘सत्व’ भेटले
माझ्या निरस जगण्याला



-राम

गारवा्’

थिजलेल्या काळजावर माझ्या 
थंडी गोठवुनीया गारवा् गेला

              सदाफुलींच्या फुलां सारखा त
              ‘कहर’वषृांवुनीया गारवा् गेला

अंथरलेलया् ‘बिछान्यावर’माझ्या 
मला झोपवुनिया गारवा् गेला

             पहाटच्या दवा्वानी ‘मन’
             मोहवुनिया गारवा् गेला

‘चांदण्या’ रात्रीत कुशीवर माझ्या 
डोकं ठेवुनीया गारवा् गेला

             थरथरनारया अंगावर माझ्या 
             ‘बर्फ’पांघरूनीया गारवा् गेला


-राम



ख़ामोश कर गया वो....’

इश्क़ में मेरे जज़्बात को ‘ख़ामोश’ कर गया वो
दिल के नये ‘लिबास’ को तहस-नहस कर गया वो....

आता ही न वो, बनते थोड़े हम दिवानें ,
आकर मेरे ख़यालों में, ‘दीवाना’ कर गया वो

मुलाक़ात ही न होती ‘पहचान’थोड़े बनती 
आकर मेरी गलियों में ,पहचान कर गया वो 

‘वादा’किया था मुझसे, वादा कभी ना तोड़ूँगी 
वादा करके मुझसे फिर ‘मुकर’गया वो....

‘भरोसे’को किसी के, कोई कैसे तोड़ता है 
भरोसा मुझसे मेरा ‘उड़ा’कर गया वो ....

परायी होती है दुनिया, ‘पराया’ हर ठिकाना
फिर से इसी उम्मीद को, ‘ज़िंदा’ कर गया वो....


-राम 
सकाळ झाली आता”

स्वप्नातलया खेळण्याचा नाद सोडं आता
ऊठ जरा, डोळे उघड, सकाळ झाली आता, 

अंधारातले जगणे तुझे किती काळ टिकनार ?
वास्तवातले विश्व तुला एक दिवस दिसनार,
पाण्यावरचे बुडबुडे सारे, नको घोर करू त्याचा 
ऊठ जरा,डोळे उघड, सकाळ झाली आता....

काळोखाच्या ऊरात शोधीशी, आकाशातील ‘तारे’
घटिका भराची ‘संगत’ त्यांची होतील बेघर सारे,
‘स्वप्नपुरतीच्या’धयासापोटी वेडा होऊ नकोस असा,
ऊठ जरा, डोळे उघड, सकाळ झाली आता....

आळवशील किती काळ तुझे ‘शब्द’ मंतरलेले,
शब्दांतुनच शिकलो, जगलो शब्दांनीच मारले,
शब्दांच्याच जाळया मधला होशील ‘सावज’ आता
ऊठ जरा,डोळे उघड सकाळ झाली आता......


                                                          -राम
भीजलो चिंब तुझ्यासाठी”

भीजलो ‘चिंब’तुझ्यासाठी,
सगळं काही सोडुन आलो फक्त तुझ्यासाठी,
तु मात्र येता-येता राहिलीस;
का ? तुला नाही वाटले यावे माझ्यासाठी

पावसाच्या त्या ‘भयान’राती
उभा होतो, ‘बकुळाच्या’झाडापाशी
तुझ्याच शब्दांचे ‘आभाळ’ पांघरून ,
तुला शोधत होतो उंच क्षितीजापाशी

‘मनाला’वेड्या कायम ‘आस’तुझ्या येण्याची
काळजाची ‘धडधड’अन् डोळयांची हुरहूर वाढे सरी सारखी
शेवट पर्यंत वाटत होते येशील तु लख्ख ‘विजेसारखी’
बघता बघता वाट तुझी ‘नयन’ माझे थकले.......

सांग, प्रिये का? खेळलीस माझ्या नाजुक भावनांशी......




-राम


“अगर आपके पास कमी है, अगर आप ग़रीबी या रोग के शिकार हैं, तो ऐसा इसलिए है क्यूँ की आप अपनी शक्ति पर यक़ीन नहीं करते हैं या उसे समझते नहीं है...