‘कब से ख़ुद को ....’
कब से ख़ुद को ‘ख़ामोश’ रक्ख़ा है ,
दिल धड़का नहीं , दबोच रक्ख़ा है
तुम नहीं जानते हमसे बात क्यूँ नहीं होती ?
बातों का ‘समंदर’ हमने ‘बंद’रक्ख़ा है ......!
कुछ कह भी दूँ अगर बड़ी ‘हिम्मत’से ,
बातों का कहाँ ‘मतलब’बनता है ....
आप ‘सुनना’भी वहीं चाहते हो,
जो सुनने का ‘ठान ‘रखा है ......!!
समंदर की लहरों की तरहाँ है मेरे ‘जज़्बात’
क़द्र करने के लिए ‘आसमान ‘की गहराई चाहिये,
कहाँ से ले आओगे फिर जिगर का ख़ून भी तुम ,
कुछ देर ‘असर ‘के लिए .....!!!
-राम
कब से ख़ुद को ‘ख़ामोश’ रक्ख़ा है ,
दिल धड़का नहीं , दबोच रक्ख़ा है
तुम नहीं जानते हमसे बात क्यूँ नहीं होती ?
बातों का ‘समंदर’ हमने ‘बंद’रक्ख़ा है ......!
कुछ कह भी दूँ अगर बड़ी ‘हिम्मत’से ,
बातों का कहाँ ‘मतलब’बनता है ....
आप ‘सुनना’भी वहीं चाहते हो,
जो सुनने का ‘ठान ‘रखा है ......!!
समंदर की लहरों की तरहाँ है मेरे ‘जज़्बात’
क़द्र करने के लिए ‘आसमान ‘की गहराई चाहिये,
कहाँ से ले आओगे फिर जिगर का ख़ून भी तुम ,
कुछ देर ‘असर ‘के लिए .....!!!
-राम
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