Thursday, 12 April 2018

“मैं समझता हुँ...”


 मैं समझता हुँ मैं, बड़ा ‘बन’ गया
चंद सिक्के कमाकर  ‘कामयाब’ बन गया 

पहलें की ज़िंदगी, बहुत ‘साधीं’हुवा करतीं थी 
पैदल चलता था, ‘हवाई’चप्पल सुहानी लगती थी 

‘साइकल’ की चक्कर फ़रारी लगती थी,
पाँच रुपए की नोट ‘पाँचसौ’ की लगती थी 

हम हँसते-हँसते थक जातें थे,
फिर भी बातें कभी ख़त्म ना होती थी,

दोस्तों के साथ, गलीं के ‘चाय’ की चुस्की
‘बेमतलब’ बातों का स्वाद और मिठास बढ़ाती थी 

बहुत याद आते है बीतीं यादों के ख़ज़ाने
मेरी बेचैनी को और ज़्यादा ‘बेचैन’ कर जाते है बीतें ज़माने

कौन था वो जिसने कामयाबी का ‘पाठ’ पढ़ाया,
कौन था वो जिसने भीड़ के साथ ‘दौड़ना’सिखाया

सिखा देता जरासी ‘सही’ सिख और सही ‘तरीक़ा’ जीने का,
कौन था जो ‘मेरा’यहाँ, मेरी कामयाबी को देखता

नदी के ‘बहाव’ की तरहा है जीवन, इसे खुल के बहने दो 
खुली हवाओं की तरहा है ज़िंदगी, इसे पूरी तरहा ‘उड़ने’ दो....



-राम 






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