Friday, 20 April 2018

माझ्या निराशेचा सार...”

माझ्या निराशेचा ‘सार’ कळला मजला
बागेतील फुलांचा ‘आस्वाद’ कळला मजला,

मानुसकिच्या जगामध्ये
किती ‘जीव’ येती-जाती,
सहा रूतुंच्या सोहळयां मधली,
विविध ‘रंगांची’ऊधळन जसी

रंगी-बेरंगी जगण्यातला ‘सुर’ स्फुरला मजला
माझ्या निराशेचा सार कळला मजला

कुठे फुलतो, निशिगंध-मोगरा,
कुठे फुलवी मोर पिसारा,
‘उजाडलेलया्’, डोंगरावरती
‘रवि्’ हासतो लाजरा

सृष्टीच्या खेळांमधला ‘डाव’ कळला मजला
माझ्या निराशेचा सार कळला मजला....!

कवडी-दमडी मिळवण्यांसाठी,
का ? जिवघेणां खेळ खेळती,
‘एकमेकांच्या’जिवांवर उठली
इथलीं दगड-माती....

कोंडलेलया् मनाचा ‘श्वास’ कळला मजला
माझ्या निराशेचा सार कळला मजला....!!

भावनांचा इथे खेळ मांडला,
आजचा ‘मोहन’ खुळा, बावळां,
बघुनियां, राधेसोबतचा चाळा,
‘जीव’ माझा पोळला....

पिरतीच्या वाटेवरचा ‘घात’ कळला मजला
माझ्या निराशेचा सार कळला मजला....!!!


-राम


Tuesday, 17 April 2018

“वादळं”.        
                                          
डोळ्यात ‘वादळं’ ऊठु दया 
जरा धुंद स्वप्नांची ,
जगाला भिती वाटु दया,
तुमच्या उदयाचा ‘जगण्याची’

आपणच बांधत असतो,
हातात ‘कड्या’ साखळया्ंच्या 
‘बंद’ डोळ्यांनी बघत असतो;
वाटा ‘खुलया्’ आकाशांच्या 

मिळत नसतं कुनालाही,
‘मिळवावं’ लागतं,
‘भान’ठेऊनच ज्याला-त्याला,
‘बेभान’ व्हाव लागतं

कळु दया् जगाला
जरासी इच्छा तुमच्या ‘दिलाची’
दाखवून दया् ‘झलक’ जगाला,
तुमच्या बेभान ‘तुफान’ जगण्याची...



(बाबा आमटे यांच्या एका ओळीतुन पे्रणा घेऊन रचलेली कविता)

-राम

Friday, 13 April 2018

“ज़िंदगी तमाम संभावनाओं से भरा ‘रोचक’ अभियान है
  और हर किसी को इसे पूरी ‘ज़िन्दादिली’से जीना चाहिए”

- अर्ल नायटिंगल

Thursday, 12 April 2018

“मैं समझता हुँ...”


 मैं समझता हुँ मैं, बड़ा ‘बन’ गया
चंद सिक्के कमाकर  ‘कामयाब’ बन गया 

पहलें की ज़िंदगी, बहुत ‘साधीं’हुवा करतीं थी 
पैदल चलता था, ‘हवाई’चप्पल सुहानी लगती थी 

‘साइकल’ की चक्कर फ़रारी लगती थी,
पाँच रुपए की नोट ‘पाँचसौ’ की लगती थी 

हम हँसते-हँसते थक जातें थे,
फिर भी बातें कभी ख़त्म ना होती थी,

दोस्तों के साथ, गलीं के ‘चाय’ की चुस्की
‘बेमतलब’ बातों का स्वाद और मिठास बढ़ाती थी 

बहुत याद आते है बीतीं यादों के ख़ज़ाने
मेरी बेचैनी को और ज़्यादा ‘बेचैन’ कर जाते है बीतें ज़माने

कौन था वो जिसने कामयाबी का ‘पाठ’ पढ़ाया,
कौन था वो जिसने भीड़ के साथ ‘दौड़ना’सिखाया

सिखा देता जरासी ‘सही’ सिख और सही ‘तरीक़ा’ जीने का,
कौन था जो ‘मेरा’यहाँ, मेरी कामयाबी को देखता

नदी के ‘बहाव’ की तरहा है जीवन, इसे खुल के बहने दो 
खुली हवाओं की तरहा है ज़िंदगी, इसे पूरी तरहा ‘उड़ने’ दो....



-राम 






Tuesday, 10 April 2018

    “हमें रोक सके, ज़माने में दम नहीं
      हमसे ज़माना है , ज़माने से हम नहीं”


Monday, 9 April 2018

‘भंगार समजू नका’

मझया जबाबदारीला,
‘बेज़बाबदार’समजू नका
थाटात राहनारयांनो,
मला ‘भंगार’ समजू नका

तुम्हीं ‘संपवल’ म्हनुन
संपनार नाहिच मी,
हा माझा ‘विश्वास’आहे
भास समजू नका...

आडवनार तरी किती ?
आडवून-आडवून पाउलं तुमी,
मी रास्ताच तयार केलाय,
‘पाऊलवाट’ समजू नका 

केवहाच बांधलय मी,
‘यशाचं’ तोरण भीताडाला
चुकुनही अपयशाची ,
‘दुवा’ करु नका....



-राम 
दोस्तों जिस क़दर आपने मुझे इज़्ज़त अदा फ़रमाईं, मुझे प्यार दीया मैं आपका बेहद शुक्रगुज़ार हु और तहें दिल से आपका शुक्रिया करता हूँ ... और उम्मीद करता हूँ के इसी तरहा अपका प्रेम सदा के लिए रहेगा.



 शुक्रिया.!!

-राम 

Sunday, 8 April 2018

‘ज़िंदगी के दौर पर’

जहाँ से शुरू की थी ज़िंदगी, रास्तों में मिलते गए लोग 
मैं तो ख़ैर ‘दोस्त’ बनता गया, दुश्मन बन गए लोग...

‘क्यूँ ?भरोसा’ कर गए थे बेग़ाने उन बहारों पर,
‘अहसानमंद’ होकर फिर, फ़रेब कर गए लोग...

‘पराया’नहीं माना था , किसी भी अनजान चलते‘मुसाफ़िर’ को 
क्यूँ मुझको, मुझसे पराया कर गए लोग....

कह रहे थे, ‘हमसफ़र’ बने रहेंगे हर मुश्किल में ता उम्र
दो ‘क़दम’ साथ होकर फिर साथ छोड़ गए लोग....

मैं चीख़ता चिल्लाता रहा के मुझे जीने दो ,
हर पल ‘लूटकर ‘ख़ामोश रह गए लोग....




-राम 




‘अपना बनाए रखना’

कुछ देर तबियत से,
आंस लगायें रखना,
कुछ इस तरहा हमपर ,
पलकें जमायें रखना...!

                जैसे रोज ‘सुबह’ आकर
                हमें जागती है ‘सूरज’ की रोशनी;
                मयखना अपने हुस्न का ,
                इस तरहाँ सजायें रखना...!!

बड़े ‘शौक़’से जी रहे है हम
‘आसमान’में उड़ रहें हैं हम,
तुम्हें पाया है जब से,
पल-पल उभरने लगें है हम....!!!

               ‘हसरतें’बहुत सी होती है दिल की 
               बस एक ही पूरी करना 
               बड़ी ‘मेहरबानी’होगी हमपर 
               हमें अपना बनायें रखना.....!!!!


-राम
          

Saturday, 7 April 2018

पलकों के किनारे...

पलकों के किनारे जो भिगोयें नहीं 
वो समजते हैं के हम ‘रोए’ नहीं 
वो, पुछते है हमें के ख़्वाबों में किसे देखते हो,
और हम है के एक ‘ज़माने’ से सोए नहीं....!!


-राम 


हमपर थोड़ा ‘रहम’ किया होता ,
निगाहों को अपने कहीं और मोड़ा होता 
‘आग’ लगानी थी तुमको बेशक लगा देते,
लगा ने से पहले ,कम से कम
थोड़ा पानी तो बरसाया होता ....!!


-राम



तेरी यादों के...

तेरी यादों के ‘काफलें’
कुछ इसकदर बढ़े जातें हैं,
आजकल हम पल-पल
बिखर जाते हैं...!

ना ‘दिल’कहीं और लगता है
ना दूर दूर तलक कुछ दिखता है
मानो खो गया मुझसे मेरा अपना ‘सबकुछ’
मानो खो गया मुझसे मेरा ‘वजूद’....!!


-राम

“अगर आपके पास कमी है, अगर आप ग़रीबी या रोग के शिकार हैं, तो ऐसा इसलिए है क्यूँ की आप अपनी शक्ति पर यक़ीन नहीं करते हैं या उसे समझते नहीं है...